मैं पेशे से एक वक़ील हूँ, 2017 मार्च में मुझे पता चला कि मुझे TB है। इस ख़बर ने मुझे पूरी तरह से झंझोड़ कर रख दिया था। जुलाई 2017 में मुझे पता चला कि मुझे MDR-TB हो गया था।
इस बीमारी के मरीज़ों को आए दिन एक नयी जंग लड़नी होती है। यह जंग होती है समाज से, ख़ुद से, TB से और एक जंग होती है खुद की खोई हुई आत्मनिर्भरता वापस लाने के लिए । दो साल के इलाज के दौरान मैं पूरी तरह से टूट गई थी।
दवाइओ का मेरे शरीर पर कुछ ऐसा असर हुआ की मेरे चारो ओर उदासी और निराशा थी। हैरानी तो मुझे यह जानकर हुई की आज भी TB के मरीज़ को इस बीमारी से, इससे जुड़े अवसाद और इससे सम्बंधित मानसिक तनाव से अकेले लड़ना पड़ता है। आज भी इस बीमारी को कुक्षि घेरे हुए है।
आज भी एक मरीज़ को इन सब से अकेले गुज़रना पड़ता है। डॉक्टरों द्वारा भी इसे अक्सर बहिष्कृत कर दिया जाता है , कई बार तो मरीज़ अपनी दुविधा, माता-पिता या दोस्तों के साथ भी नहीं बायाँ कर सकते।
इस दौरान एक चीज़ तो मैंने सिख सीख ली , ये TB की बीमारी शारीरिक और मानसिक उपभोग का कारण बनती है।
एक तरह से डिप्रेशन भी एक तरह का खपत था, जो कि ट्यूबरकुलर किस्म का नहीं था जो मांसपेशियों के अदर्शन का कारण बनता है, यह अस्तित्वगत लोप को प्रेरित करता है। आपको जानकर हैरानी होगी कि जितनी तक़लीफ़ TB देता है उतनी ही तकलीफ़ |इस बीमारी से जूझने वाले मरीज़ को अवसाद भी देता है। उसके चारों तरफ़ एक विशाल बेदिली और न्यूनता का माहौल छाया होता है, उसे हर समय अपनी शक्ति हीनता का एहसास होता है जो उसे अंदर ही अंदर खोखला कर देता है और इससे उनके इलाज पर और भी गहरा असर होता है।
मैं ख़ुद को बहुत ख़ुशनसीब मानती हूँ कि मेरे परिवार वालों ने, डॉक्टरों ने, मेरे दोस्तों ने, मेरे इलाज में और मुझे डिप्रेशन से बाहर लाने में बहुत बड़ा योगदान दिया। मैंने भी उनका पूरा सहयोग किया, उन्हें अपनी मानसिक स्थिति की पूरी जानकारी दी कि मैं किस चीज़ से गुज़र रही हूँ ताकि वह मुझे अच्छे से समझ पाएँ ओ मेरी मदद कर पाएँ और ये तभी मुमकिन हुआ जब में सर्वाइवर लेड इनिशिएटिव जैसे सर्वाइवर्ज़ अगेन्स्ट TB के सम्पर्क में आयी। जिन्होंने मुझे इस मुश्किल दौर से बाहर निकलने का हौसला दिया और मुझे फिर से एक बार आत्मनिर्भरता का मार्ग दिखाया।
आज मैं विशेष रूप से TB सम्बंधित मुद्दों पर काम करती हूँ। एक TB के मरीज़ को इलाज के दौरान डिप्रेशन और मानसिक तनाव जैसी कठिनाइयों से गुज़ारना पड़ता है। हमारा मकसद है उनकी सहायता करना। इच्छा शक्ति के बिना किसी भी बीमारी से जीतना बहुत कठिन है। मेरा मानना यह है कि पूरे इलाज के दौरान सबसे मुश्किल कार्य होता आशावादी और सकारात्मक रहना। दवाइओ का असर ही कुछ ऐसा होता है, की हर किसी को अवसाद का सामना करना पड़ता है। आज भी भारत में मरीज़ों के लिए पर्याप्त काउंसलिंग की व्यवस्था नहीं है ऐसे में हमें एक व्यापक ट्रीटमेंट व्यवस्था कि ज़रूरत है ताकि कोई भी TB का मरीज़ इलाज से वंचित ना रहे और उसे किसी भी मानसिक पीड़ा का अकेले सामना न करना पड़े।